जीवनगाथा पीर सखी सरवर - लखदाता जी
अरब देश के बग़दाद शहर में बहुत ही करनी वाले फ़क़ीर हुऐ हैं, उनमें से एक फ़क़ीर हुऐ हैं, सय्यद उमरशाह जी । जिन्होंने 40 साल तक "रसूले करीम सल्लाह अल्ला वस्सलहम" जी के रोज़ा मुबारक पर सेवा की । उनके 4 बेटे थे - स
य्यद जैनुल आबिदीन, सय्यद हस्सन, सय्यद अली और सय्यद जफ़र ।
एक दिन सय्यद उमरशाह जी अकाल चलाना कर गए, उन के बाद उनकी गद्दी पर उनके बड़े बेटे सय्यद जैनुल आबिदीन जी को बैठाया गया । सय्यद जैनुल आबिदीन जी ने बग़दाद शरीफ में गरीबो, मजबूरों और जरुरत मंदो की 22 साल
तक सेवा की, और इसी दौरान उनकी शादी बग़दाद शरीफ की बीबी अमीना जी (जिन्हे लोग बीबी फातिमा जी के नाम से भी याद करते हैं) से हुई । इनके 3 बेटे हुए सय्यद दाऊद, सय्यद महमूद और सय्यद सहरा । 22 साल की सेवा निभाने
के बाद एक दिन सय्यद जैनुल आबिदीन जी अपने रूहानी गुरु जी के हुकम से बग़दाद शरीफ छोड़ कर मुल्तान (अब पाकिस्तान) के पास पड़ते गॉव शाहकोट (अब पाकिस्तान) में परिवार समेत आकर अपना डेरा जमाया । यहाँ आये अभी थोड़ा
समय ही बीता था की बीबी अमीना (फातिमा) जी स्वर्ग सिधार गईं । उनकी मौत के बाद वहाँ के नम्बरदार पीर अरहान ने अपनी बेटी आइशा जी की शादी सय्यद जैनुल आबिदीन जी से करदी । इस शादी से आप के 2 बेटे पैदा हुए बड़े
बेटे का नाम सय्यद अहमद सुलतान (लखदाता जी) और छोटे बेटे का नाम सय्यद अब्दुल गनी खान ढोढा रखा गया ।
जब लखदाता जी का जन्म होने वाला था तो दाई नूरां को बुलाया गया जो कई सालों से आँखों से अंधी थी । जब लखदाता जी का जन्म हुआ उस वक़्त एक बहुत अजीबो गरीब करिश्मा हुआ,
जैसे ही दाई नूरां ने आप को छुआ आप की छो प्राप्त होते ही अंधी दाई नूरां की आंखों की रोशनी आ गई और उसे सब दिखाई देने लग पड़ा और उसकी अँधेरी जिंदगी फिर से रोशन हो गई । दाई नूरां ने सय्यद जैनुल आबिदीन जी से कहा
हज़ूर आप के घर खुद अल्ला ने जन्म लिया है । माता आईशा जी के कहने पर सय्यद जैनुल आबिदीन जी ने दाई नूरां को जुवार का भरा घड़ा बधाई के रूप में दिया । घड़ा सिर पर उठा दाई नूरां ख़ुशी - ख़ुशी घर की तरफ चल पड़ी,
रास्ते में ख्याल आया क्यूँ ना जुवार बेच कर घर का राशन ले लूं । यही सोच कर दाई नूरां बनियें की दूकान पर गई और जैसे ही उसने घड़ा सिर से उतार कर जमीन पर रखा तो दाई नूरां और बनियां हैरानी से घड़े की तरफ देखते ही रह
गए जो घड़ा जुवार से भरा हुआ था उस में से सतरंगी रौशनी निकल रही है और उनकी रोशनी से सारी दूकान जगमगा उठी यानि जुवार के दाने लाल (हीरे - ज्वाहरात) बन गए और उसी दिन से आपका नाम लालां वाला पीर पड़ गया ।
रूहानियत की शिक्षा आपने अपने पिता जी से हासिल की और आगे की शिक्षा आपने लाहौर के सय्यद मोहम्मद इसहाक जी से प्राप्त की । लखदाता जी ने फैज़ (रेहमत) की शिक्षा तस्वूफ की दुनिया के तीन बड़े सिलसिलों से यानि कादरीयों,
चिश्तीयों और सुहरवर्दीयों से हासिल की ।
जन्म के समय लखदाता जी का नाम सय्यद अहमद सुलतान रखा गया, आप के सभी नामों में से सखी सरवर नाम ज्यादा प्रचलित है क्योंकि आप इतने जयादा दरिया दिल थे जो भी आप के पास आता कैसी भी मुराद ले के आता, चाहे वो धर्म के प्रति होती चाहे दुनियादारी की मुश्किल होती आप सभी मुश्किलों का हल एक ही पल में कर देते थे ।
लखदाता जी का एक किस्सा बहुत मशहूर है, जब लखदाता जी की शादी हुई और आप को जो भी दहेज़ में मिला वो सब आपने गरीबों और जरुरतमंदो में बाँट दिया आप बहुत ऊँचे खयालों और गरीबों का धयान रखने वाले पीर थे यां यूँ कहो की दानशीलता और रूहानियत आप में कूट - कूट कर भरी हुई थी । जो भी जरूरतमंद आप के पास आता आप उस की आस मुराद जरुर पूरी करते । इसी लिए आप का नाम सखी सरवर पड़ा । यह बात उस समय से लेकर आज तक अट्टल है कोई भी सवाली, चाहे किसी भी मजहब का हो अगर सच्चे दिल से कोई भी मुराद लेकर आप के दरबार में आता है तो उस की आस-मुराद जरुर पूरी होती है ।
लखदाता जी ने अपने जीवन का काफी समय धौंकल में गुजारा और बाद में आप शाहकोट आ गए और यहीं पर आपने सय्यद अब्दुल रज़ाक जी की बेटी से शादी की और आप के एक बेटा भी हुआ जिस का नाम सय्यद सिराजुदीन रखा था । उसके बाद आपने दूसरी शादी मुल्तान के राजा घणो पठान जी की बेटी से की । लखदाता जी कई साल अपने पिता जी सय्यद जैनुल आबिदीन, माता आइशा जी और भाईओं के साथ शाहकोट में ही रहे और दीन-दुखियों की सेवा करते रहे । यहीं पर आप के पिता जी, माता जी और भाई अल्ला को प्यारे हो गए और उनके मजार शाहकोट में ही स्थित हैं ।
एक के बाद एक करके आप के सभी रिश्तेदार अल्ला को प्यारे हो गए तो आप ने शाहकोट को छोड़ने का मन बना लिया और एक दिन आप ने शाहकोट छोड़ दिया और गॉव निगाहा की तरफ रवाना हो गए, जो मुल्तान से लगभग 60 (साठ) कोह की दुरी पर है । जब आप निगाहे की तरफ रवाना हुए तो उस वक़्त आपके साथ आप की पत्नी बीबी बाई जी, आप का बेटा सय्यद सिराजुदीन जो सय्यद राज के नाम से भी प्रसिद्ध है वो और आप के छोटे भाई खान ढोढा जी भी आप के साथ थे । इनके इलावा आप के साथ आप के चार साथी भी थे, वही चार साथी जो चार यार - मियां नूर जी, मियां मुहमद इसहाक जी, मियां उस्मान जी और मियां अली जी - वो भी आप के साथ निगाहा चल दिए । लखदाता जी ने जब शाहकोट छोड़ा तो उन्होंने अपना सब कुछ वही छोड़ दिया था यहाँ तक की सारे खेत खलियान सब ऐसे ही छोड़ कर निगाहा आ गए थे ।
लखदाता जी ने गॉव निगाहा में आकर डेरा जमा लिया और यहीं पर एक झोंपड़ी बना कर बाकी की सारी जिंदगी खुदा की इबादत करते हुए गरीबों, मजलूमों और जरूरतमंदों की सेवा करते हुए अपना जीवन नौछावर कर दिया । एक बार लखदाता जी ने कुछ राहगीरों को अपने मुखारबिंद से वचन किया था की चाहे कोई फ़क़ीर हो यां चोर , राजा हो यां रंक एक दिन सब को यह दुनिया छोड़ कर जाना है बस फर्क सिर्फ इतना होता है की इंसान का जीना और मरना होता है पर जो पूर्ण पीर फ़क़ीर, संत, गुरु होते है उनका आना जाना होता है वो अपनी मर्ज़ी से आते है और अपनी मर्ज़ी से जाते है उन्हें कोई मार नहीं सकता वो अमर होते है । सखी सरवर जी, लखदाता जी, लालां वाली सरकार अपने मुरीदों में खैरातें बांटते हुए इस नाशवान दुनिया को अलविदा कह कर सचखंड में जा विराजे ।
लखदाता जी ने अपने मुरीदों से वचन किया की हमारे इस दुनिया छोड़ देने के बाद भी सब की मुरादें पूरी होंगी, अगर कोई भी इंसान, किसी भी मजहब का हो अगर उन्हें सच्चे दिल से याद करेगा तो लखदाता जी उसकी आस - मुराद जरुर पूरी करेंगे ।
समय के हुकुमरानों ने देश का बंटवारा तो कर दिया लेकिन वो लखदाता जी के मुरीदों की श्रद्धा का बंटवारा नहीं कर सके । इसी लिए आज भी दोनों देशो (हिंदुस्तान और पाकिस्तान ) में लखदाता जी के नाम के मेले लगते है और
चिराग रोशन होते है ।